पहले जानें- कौन हैं मोहम्मद सईद आलम?
डॉ. मोहम्मद सईद आलम का जन्म 5 अप्रैल 1965 को गया शहर में हुआ। वहीं क़ासमी हाई स्कूल से मैट्रिक की। फिर मगध यूनिवर्सिटी में प्राचीन इतिहास और बुद्धिस्ट स्टडी में एमए और पीएचडी की। उच्च शिक्षा मगध विश्वविद्यालय से पूर्ण करने के उपरान्त पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, (स्नातकोत्तर) में 2003 से प्राध्यापक के रूप में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं।
भारतीय समाज की निरन्तरता एवं परिवर्तन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने में गहरी अभिरूचि रखते हैं।अपने अध्यापन कार्य काल में कई विभागों में कार्य किया। इनमें डीडीई (दूरस्थ शिक्षा निदेशालय) के उपनिदेशक के रूप में एवं सम्प्रति यूजीसी ह्यूमन रिसोर्स सेन्टर के उपनिदेशक का कार्यकाल अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
पटना विश्वविद्यालय के सीनेट, वित्त, प्रोन्नति समिति एवं अन्य कई समितियों के सदस्य रहे हैं। साथ ही आप मगध विश्वविद्यालय के विगत एक दशक से सीनेट सदस्य के पद पर अपनी सेवा का योगदान दे रहे हैं। इतिहासकार सुलभ गुणों से युक्त होकर शोधकार्य में निरन्तर संलग्न रहते हैं। इनकी कई शोध पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा 60 से अधिक शोध-निबंध मानक शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।जिस क़ासमी हाई स्कूल से शिक्षण ग्रहण किया वहां 18 वर्षों तक सचिव के पद पर रहे।
विश्व जल दिवस विशेष : फल्गु नदी सभ्यता पर शोध कर रहे इतिहासकार सईद आलम
सिंधु घाटी, मिस्र, ईरान, चीन की सभ्यताओं की तर्ज़ पर फल्गु नदी घाटी की सभ्यता की खोज करने निकले हैं बिहार के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ मोहम्मद सईद आलम।उनके इस शोध पर राज्य सरकार ने भी दिलचस्पी दिखाई है।इस प्रोजेक्ट पर 49 लाख की राशि खर्च होने का अनुमान है।
फल्गु नदी के तट पर गया नगर बसा है। जो धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व का केंद्र है। फल्गु किनारे एक साथ कई धर्मों की उत्पत्ति हुई है। जिसमें मुख्य रूप से बौद्ध,हिंदू,जैन और इस्लाम धर्म के विकास का सबूत मिलता है।
इस सिलसिले में अभी तक कोई शोध का काम नहीं हुआ है। यदि फल्गु नदी से जुड़ी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत पर तहक़ीक़ का काम हो गया तो बिहार के इतिहास को समझने का नये सिरे से मौक़ा मिलेगा।
पटना यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के असोसिएट प्रोफ़ेसर सईद आलम ने फल्गु नदी सभ्यता के इतिहास को खंगालने का तहैया किया है। इस सिलसिले में एक प्रोजेक्ट तैयार कर बिहार सरकार को भेजा गया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इस परियोजना में दिलचस्पी दिखाई है।
राज्य सरकार ने इस प्रतिवेदन को कला,संस्कृति एवं युवा विभाग के सुपुर्द कर दिया है। कोरोनाकाल की वजह से परियोजना की प्रगति धीमी रही लेकिन अब इसे फाइनल मंज़ूरी मिलने की उम्मीद है।
फल्गु नदी का धार्मिक महत्व
वृत्तांतों तथा आधुनिक अनुसंधानों से यह विदित होता है कि ऐतिहासिक स्वरूप में फल्गु नदी का जो महत्व है वह किसी भी उन्नत संस्कृति के सदृश है। अनेक छोटी-छोटी सरिताओं के मिलने से फल्गु नदी की धारा का निर्माण होता है। मुख्य धारा का नया नाम निरंजना,लीलाजन, मोहना नाम की सहायक नदियों से मिलकर यह विशाल रूप धारण कर लेती है। अपने स्वरूप में यह इतना समर्थ है कि पितृपक्ष के समय देश के विभिन्न भागों से लोग फल्गु नदी में स्नान के लिए आते हैं और पिण्डदान करते हैं।
वैदिक परम्परा और मान्यताओं के अनुसार, सनातन काल से श्राद्ध की परंपरा चली आ रही है। गया के फल्गू नदी के तट पर पित्तरों के लिए खास पितृपक्ष में मोक्षधाम, गयाधाम आकर पिण्डदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति, माता-पिता सहित सात पीढ़ियों का उद्धार होता है।
गया विष्णु का नगर के साथ ही मोक्ष की भूमि भी कहलाता है। भारत में 55 स्थानों में श्राद्ध के लिए बिहार का गया सर्वोपरि माना गया है। भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, भगवान श्रीकृष्ण, मरिधि आदि के फल्गु नदी में पिण्डदान किये जाने का उल्लेख धर्मग्रंथों में है।
शोध में क्या खोजेंगे?
प्रस्तावित परियोजना के बारे में सईद आलम बताते हैं कि प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की उत्पत्ति एवं विकास में गया की भूमि ऐतिहासिक है। मन्दिरों, स्तूपों, बौद्ध विहारों, जैन मन्दिरों, आजीवकों के लिए गुफाओं के साथ खानकाहों एवं मस्जिदों इस्लाम और सिख धर्म यानि भारत के प्रमुख धर्म फल्गु नदी के किनारे ही पल्लवित एवं पुष्पित हुई।
गया सीमित परिधि में एक ऐसा केन्द्र है जहां की पवित्र भारतीय संस्कृति एवं धर्म की ज्योति ने विश्व को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। हम कह सकते हैं कि गया का फल्गु नदी भारतीय संस्कृति की धरोहर को अपनी कोख में सुरक्षित संजोये हुए अपने गौरवशाली अतीत-गाथा सुनाने को विवश है।
वैदिक काल से लेकर कालांतर में पूरे विश्व में सभ्यताओं का उदय के रूप में पताका फैला रहा है। सईद आलम पत्रकार से कहते हैं, ‘हम देखते हैं कि यहां एक साथ कई धर्म का उदय हो रहा है। सिद्धार्थ को भी ज्ञान की प्राप्ति तब हो रही है और महात्मा बुद्ध बन रहे हैं जब निरंजना नदी के किनारे बोधगया में वह निर्वाण के लिए पहुंचते हैं।
इसी तरह भगवान विष्णु भैंसासुर जैसा शक्तिशाली राक्षस का वध इसी फल्गु किनारे विष्णु पद में करते हैं। बिहार में जैन धर्म का एक बड़ा केंद्र गया है. जैन धर्म के विकास में भी फल्गु नदी सभ्यता के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।
भारत इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार में भी हम पाते कि नदियों का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा है। अध्ययन से हम पाते हैं कि जितनी भी खानकाहें स्थापित है अधिकतर नदियों के किनारे ही अवस्थित हैं। 1475 ईस्वी में दरवेश अशरफ़ मनेरशरीफ खानक़ाह सिलसिला से गया के बीथोशरीफ खानक़ाह में आ कर बस गए।
इसके अतिरिक्त रामसागर गया पीर मंसूर खानकाह भी फल्गु नदी के किनारे ही हैं। 1993 में इसी फल्गु के एक छोर पर तबलीगी इज्तेमा में मुसलमान नदी के पानी से वजू कर रहे थे तो ठीक उसी वक़्त दूसरी छोर पर सनातन धर्मी अपने पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए फल्गु में पिंडदान कर रहे थे।
फल्गु हिंदू-मुस्लिम को सांस्कृतिक -धार्मिक रूप से जोड़ने का भी काम करता है। फल्गु नदी क्षेत्र में भारत के प्रमुख धर्मों में आजीविक सम्प्रदाय के योगदानों को भी नकारा नहीं जा सकता है। इस सम्प्रदाय की स्थापना का श्रेय मक्खलिगोशाल को दिया जाता है जो महात्मा बुद्ध और महावीर के समकालीन थे।
अशोक के सातवें अभिलेख में आजीविकों का उल्लेख किया गया है। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष इस सम्प्रदाय के संन्यासियों के निवास के लिए बराबर पहाड़ी में दो गुफाओं का निर्माण करवाया था’सईद आलम कहते हैं कि यह परियोजना फल्गु के किनारे राजनीतिक,सामाजिक और ख़ास कर धार्मिक विकास में मील का पत्थर साबित होगा। फल्गु के इतिहास खंगालने पर इसके व्यापक रूप से बिहार रुबरू होगा और नदी सभ्यता को जानने में मदद मिलेगी।
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