नई दिल्ली-
उर्दू जिसका जन्म खानकाह (मठ) में हुआ, बाजार में पली-बढ़ी और एक दिन खानकाहों की आध्यात्मिकता और बाजारों की सार्वजनिक लोकप्रियता के सहारे इतनी शक्तिशाली हो गई कि इसने 600 से अधिक वर्षों से किला-ए-मुअल्ला (लाल किला) में अपना दबदबा बनाई हुई फारसी जबान को किला-ए-मुअल्ला से बेदखल किया और उर्दू-ए-मुअल्ला के स्वरूप में स्वयं उसकी जगह विराजमान हो गई.
प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. मसऊद हुसैन खान के अनुसार, उर्दू का जन्म एक ऐसा अंजानापन समझौता था, जो इस्लामी, ईरानी और इंडो-आर्यन की प्रतिनिधि बोली के बीच सदियों की ऐतिहासिक प्रक्रिया से उभरा और जिसने विकास के नए आयाम स्थापित करते हुए जहां हिन्दुस्तान की अनेकता में एकता की बुनियाद डाली और अपनी भाषाई, शैक्षिक और साहित्यिक हैसियत मनवाई और इसी के परिणामस्वरूप कलकत्ता से 27 अगस्त 1822 को उर्दू के पहले आधिकारिक अखबार ‘‘जामे-जहांनुमा’’ का पंडित हरिहर दत्त के द्वारा जारी करना था और यह कम अहमियत की बात नहीं कि अंग्रेजी और बंगाली के बाद जामे-जहांनुमा के प्रकाशन के साथ उर्दू वह तीसरी जबान बन गई जिसमें बाकायदा एक अखबार निकलना शुरू हुआ.
उर्दू पत्रकारिता के इस आगमन के साथ उर्दू में कई अखबार निकलने लगे, जिनमें ज्यादातर विदेशी उपनिवेशवाद के रूप में ब्रिटिश वर्चस्व के खिलाफ देश भर में माहौल बनाने में लगे रहे. चूंकि बंगाली भाषा का दायरा पूर्वी हिन्दुस्तान के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी उपनिवेशवदियों की भाषा थी.
इसलिए यह उर्दू ही थी,, जिसने मुल्क भर में विदेशी आधिपत्य के विरुद्ध जोर आजमा रही थी और उस जनमत को जगा रही थी, जिसके कारण 1857 में पहला स्वतंत्रता आंदोलन हुआ. इस स्वतंत्रता आंदोलन में जिन लोगों ने अपना खून बहाया उनमें अन्य स्वतंत्रता सेनानियों, उलमा, सिपाहियों और आम जनता के अलावा ‘‘देहली उर्दू अखबार’’ के एडिटर मोलवी मुहम्मद बाकर भी थे.
यहां इस बात का उल्लेख करना अनुचित ना होगा कि हम पहले स्वतंत्रता आंदोलन में फांसी पर लटका दिये जाने वाले उर्दू पत्रकार मोलवी मुहम्मद बाकर का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन ‘अखबार-ए-प्याम-ए-आजादी’ के एडिटर मिर्जा बेदार बख्त को भुला देते हैं, जिनको भी इस पहले स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए लोगों को तैयार करने और अंग्रेजों के विरोध में अपने कलम से तीर व बंदूक जैसा काम लेने के जुर्म में फांसी पर चढ़ा दिया गया.
स्वतंत्रता आंदोलन की नाकामी ने उर्दू पत्रकारिता को बहुत नुकसान पहुंचाया. अखबारों की संख्या घट गई, लेकिन सलाम हो उन साहसी लोगों को,े जिन्होंने उर्दू पत्रकारिता का झण्डा झुकने ना दिया.
उनमें सर सैयद, मुंशी नवल किशोर, मौलाना जफर अली खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना हसरत मोहानी सबसे आगे थे और उन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उर्दू जबान को नई दिशा और गति प्रदान की.
उर्दू पत्रकारिता के बिना हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. उर्दू पत्रकारिता के इस कारवां को बीसवीं सदी में मुसलमानों के साथ-साथ गैर-मुस्लिमों ने भी खूब आगे बढ़ाया.
वह महाशय कृष्ण का ‘‘प्रताप’’ हो या स्वामी श्रद्धानंद के संरक्षण में लाला देशबंधु गुप्ता के साथ ‘‘रोजनामा तेज’’ का शुभारंभ और फिर आर्य समाज के ही के प्रभाव में ‘‘रोजनामा मिलाप’’ के प्रकाशन ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को और ज्यादा आगे बढ़ाया.
इसी बीच, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उर्दू पत्रकारिता का इस्तेमाल उन लोगों द्वारा भी किया गया, जो सामाजिक सद्भाव और सांप्रदायिक एकता के पक्षधर नहीं थे और इसीलिए आजादी के साथ जब देश का बंटवारा हुआ, तो उर्दू पत्रकारिता को एक बार फिर धक्का लगा और लगभग 70 अखबार बंटवारे के साथ ही पाकिस्तान चले गए.
बीसवीं शताब्दी के अंत में, आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार अंग्रेजी और हिन्दी के उर्दू तीसरी भाषा के रूप में भारतीय भाषाओं में अपना स्थान बना रही थी. आज भले ही इसके पाठकों की संख्या कम होती जा रही हो, लेकिन आज भी इसकी हैसियत और महत्व को कोई नकार नहीं सकता.
उर्दू पत्रकारिता ने पत्थर के युग से निकलकर अचानक ऑफसेट युग में छलांग लगाई. इसमें हम ‘‘इंकलाब’’ मुंबई के संस्थापक मरहूम (स्वर्गीय) अब्दुल हमीद अंसारी और ‘‘सियासत’’ हैदराबाद के मरहूम (स्वर्गीय) आबिद अली खां की नई सोच को सलाम किए बिना नहीं रह सकते, जिन्होंने उर्दू पत्रकारिता के हवाले से आने वाले समय का सही अंदाजा लगा लिया था और इससे ने केवल खुद समझा, बल्कि दूसरों को भी रास्ता दिखाया. आजादी के बाद वह तमाम लोग जो पाकिस्तानी पंजाब से पलायन करके हिन्दुस्तान आए थे या फिर हिन्दुस्तानी पंजाब में पहले से ही रह रहे थे, वह बोलते तो पंजाबी थ,े लेकिन अपना कारोबार और दूसरे काम-काज उर्दू में ही करते थे. यहां तक कि वेद, पुराण, रामायण और गीता एवं गुरू ग्रंथ साहिब का पाठ भी धार्मिक अवसरों पर या अपने दैनिक जीवन में उर्दू में ही करते थे. इसलिए प्रताप, मिलाप, तेज और हिन्द समाचार जैसे उर्दू अखबार उनकी दिनचर्या में शामिल थे. आजादी के बाद जैसे-जैसे पंजाबियों की वह पीढ़ी खत्म होती गई उर्दू पत्रकारिता को भी बड़ा नुकसान पहुंचा.
आजादी के बाद देश के बंटवारे के परिणामस्वरूप मुसलमानों के खिलाफ जो नफरत, तिरस्कार और पूर्वाग्रह देखने को मिला, उसमें उर्दू पत्रकारिता ने देशभक्ति और न्याय को अपने लिए चुना और मुहम्मद उस्मान फार्कलीत ने ‘‘अल-जमीअत’’, मौलाना मुहम्मद मुस्लिम ने ’’दावत’’, मौलाना अब्दुल वहीद सिद्दीकी ने ‘‘नई दुनिया’’, अहमद सईद मलीहाबादी ने ‘‘आजाद हिंद’’ कलकत्ता, सालिक लखनवी ने ‘‘आबशार’’ कलकत्ता, वसीमुल हक ने ‘‘अखबार-ए-मश्रिक’’ कलकत्ता और देहली, सईद अहमद साहब ने ‘‘उर्दू टाइम्ज’’ मुंबई, अंसारी घराने ने ‘‘इंकलाब’’ मुंबई, गुलाम अहमद खां आरजू साहब ने हिंदुस्तान ‘‘मुंबई’’ ‘‘संगम, सदा-ए-आम, और साथी’’ पटना, ‘‘सियासत’’ हैदराबाद, ‘‘रहनुमा-ए-दकन’’ हैदराबाद, ‘‘मुंसिफ’’ हैदराबाद, ‘‘सालार’’ और ‘‘पासबान’’ बैंगलौर, ‘‘मुसलमान’’ मद्रास, ‘‘नदीम’’ भोपाल, ‘‘कौमी आवाज’’ और ‘‘अजाइम’’ लखनऊ और इसी तरह कश्मीर में शमीम अहमद शमीम जैसे लोगों ने सच बात कहने का हक अदा कर दिया और यह क्रम अब तक जारी है.
इसी तरह उर्दू के साप्ताहिक अखबारों में ‘‘आईना’’ देहली, ‘‘निदा-ए-मिल्लत’’ लखनऊ, ‘‘नशेमन’’ बंगलौर, ‘‘उर्दू ब्लिट्ज’’ मुंबई, ‘‘नई दुनिया’’ और ‘‘अखबार-ए-नौ’’ देहली आदि सच कहने में कभी पीछे नहीं रहे.
21वीं सदी में उर्दू पत्रकारिता ने एक नया रंग ले लिया है और सौभाग्य से हिन्दी और उर्दू पत्रकारिता के बीच खाई कम हुई और सुब्रत राय के राष्ट्रीय सहारा उर्दू के कई एडिशन देश भर से निकलने शुरू हुए और उनकी सुंदरता ऐसी थी कि आप किसी भाषा के बेहतर से बेहतर अखबार के साथ उसे अपने ड्राइंग रूम में रख सकते थे. फिर जागरण ग्रुप ने सिर्फ मुंबई से निकलने वाले इंकलाब को न केवल खरीदा, बल्कि आज मुंबई समेत उत्तर भारत के 12 से अधिक जगहों से इसका प्रकाशन हो रहा है.
उर्दू पत्रकारिता का 200 साल का निस्संदेह एक शानदार इतिहास है. यद्यपि इस दौरान इसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं लेकिन आज भी ये अपना सफर जारी रखे हुए है. यहां एक बात स्पष्ट करने की जरूरत है, खासकर उन लोगों के लिए जो उर्दू को केवल मुसलमानों की जबान मानते हैं कि दो सौ साल पहले उर्दू का पहला अखबार जिसने निकाला वह एक बंगाली हिंदू था और आज भी उर्दू के जो दो बड़े अखबार हैं, उनके मालिक भी हिंदू हैं.
आज जब उर्दू पत्रकारिता के 200 साल पूरे हो गए हैं, हम पण्डित हरिहर दत्ता को श्रद्धांजलि पेश करते हुए उर्दू के तमाम पत्रकारों को जिनका नाम कोई भी हो, मजहब कोई भी हो, इलाका कोई भी हो, लेकिन अगर वह उर्दू का अखबार किसी भी तरह निकाल रहे हैं,
वह चाहे राजनीतिक प्रकार का हो या वैज्ञानिक और अनुसंधान या साहित्यिक या फिर फिल्मी, हम उन्हें बधाई देते हैं और उर्दू वालों से यह अपील करते हैं कि वह यह प्रतिज्ञा करें कि उर्दू का एक अखबार जरूर खरीदेंगे और अपने बच्चों को भी तीसरी भाषा के रूप में ही सही, उर्दू जरूर पढ़ाएंगे, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इसी तरह उर्दू पत्रकारिता के सदियों के सफर का जश्न मना सकें.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर एमरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)
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