जब यूक्रेन में पड़ा भीषण अकाल

 पटना-


रूस पर बोल्शेविक सेना का कब्जा होने का तत्काल अर्थ यह नहीं था कि यह देश सीधे रूस के कब्जे में आ गया. मास्को में सत्ता की कमान संभालने वाली कम्युनिस्ट पार्टी अपने हिसाब से चीजों को बदलने में लगी थी. उसने यूक्रेन की स्वायत्तता सीधे नहीं छीनी बल्कि उसे यूक्रेनियन सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक का नाम दिया. यूक्रेन को आजाद भी घोषित किया गया और यूक्रेनी सोवियत का एक संविधान भी तैयार हो गया.


जिस तरह से यूक्रेन के लोगों में पिछले कुछ समय के दौरान राष्ट्रवादी भावनाएं पनपी थीं उसके चलते यह सब करना उस समय शायद जरूरी भी था. कहने को यह एक स्वायत्त देश था लेकिन विदेश संबंध और विदेश व्यापार जैसे मामले पूरी तरह से मास्को के ही हवाले थे. उस समय तक तीन सोवियत बन गए थे.
 
एक था रूस, दूसरा यूक्रेन और तीसरा बेलारूस। 1922 में इन तीनों को मिलाकर एक संघ बनाया गया जिसे नाम दिया गया- यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक यानी सोवियत संघ. इसमें लगभग वही सारा इलाका था जो सदियों पहले कीवियन रस में हुआ करता था.
 
कागज पर अभी भी ये तीनो सोवियत आजाद थे, लेकिन उनके पास कुछ स्थानीय मसलों पर फैसला करने के अलावा कोई और अधिकार नहीं थे। सेना, व्यापार और यातायात जैसे कई मामले पूरी तरह मास्को के हवाले हो चुके थे.
 
इसके अलावा मास्को के कई तरह के खुफिया तंत्र  थे जो हरदम और तकरीबन हर जगह सक्रिय रहते थे. आजादी और संघवाद जैसी चीजों का अब कोई मायने नहीं रह गया था.
 
यूक्रेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने खुद को पूरी तरह से रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा घोषित कर दिया था. हालांकि यूक्रेन की पार्टी में कई ऐसे लोग थे जो पार्टी की स्वायत्तता बनाए रखना चाहते थे लेकिन उनकी नहीं चली.
 
इसके बाद रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की जो यूक्रेनी इकाई बनी उसमें ज्यादातर रूसी लोग ही शामिल होने लगे. एक समय में इस इकाई में पांच हजार सदस्य थे जिसमें यूक्रेनी मूल के लोगों का प्रतिशत सिर्फ सात था.
 
लेकिन जल्द ही जो नई परेशानियां सामने आईं वे यूक्रेन पर काफी भारी पड़ीं. मास्को की कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि वह किसी भी तरह गैर रूसी सोवियत के लोगों को संतुष्ट करे.
लेकिन इसमें वह नाकाम रही. अर्थव्यवस्था में बदलाव शुरू हुआ तो उद्योग व्यापार के साथ ही खेती का भी राष्ट्रीयकरण शुरू हो गया. उसी साल सूखा भी पड़ गया और जल्द ही पूरा सोवियत संघ भीषण अकाल की चपेट में था. 1921-22 के इस अकाल ने यूक्रेन में लाखों लोगों की जान ले ली.
 
ठीक इसी समय मास्को को लगा कि स्थानीय लोगों को साथ लिए बिना बहुत आगे नहीं बढ़ा जा सकता. इसके बाद यूक्रेनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने के कईं काम भी हुए, लेकिन मूल समस्या आर्थिक थी और उस स्तर पर कोई समाधान होता नहीं दिख रहा था.
 
हालात जब बहुत ज्यादा बिगड़ने लगे तो सोवियत संघ के नेता व्लादीमीर लेनिन ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की. अब सीमित स्तर पर निजी उद्योग और कारोबार की इजाजत दी गई. इसी के साथ किसानों द्वारा अपनी सारी उपज सरकार को सौंपने का नियम बदल दिया गया. अब उनके लिए एक कोटा तय कर दिया गया, बाकी उपज वे खुले बाजार में बेच सकते थे.
 
इन सबका असर जरूर हुआ लेकिन यूक्रेन की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने में पांच साल से भी ज्यादा का समय लग गया. उसके बाद भी यूक्रेन की अर्थव्यवस्था वहीं पहंुच सकी जहां वह प्रथम विश्वयुद्ध से पहले खड़ी थी.
 
लेनिन के बाद मास्को की सत्ता जोसेफ स्टालिन के हाथ आई उसने लेनिन की नई आर्थिक नीतियों को खत्म करके औद्योगीकरण का एक नया सिलसिला शुरू किया. ठीक इसी समय दूसरे विश्वयुद्ध की भूमिका बन गई थी और साथ ही वह दौर आया जब यूक्रेन के लोगों को नए तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ा. 
[लेख इतिहास के पन्नों से ...]
[वरीय पत्रकार विवेक चन्द्रा के कलम से ......]

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